बैंगलुरु में एक तंज़ानियाई छात्रा के साथ भीड़ के हाथों बदसुलूकी और मारपीट के बाद भारत में विदेशियों और ख़ासतौर पर कालों के साथ भेदभाव पर चर्चा शुरू हो गई है.
इस मुद्दे पर जहां विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने खेद जताया, वहीं भारत में रह रहे अफ़्रीकी समुदाय ने भी नाराज़गी ज़ाहिर की.
मुंबई में रहने वाले नाइजीरियाई नागरिक सांबो डेविस टेकेना कपड़े का व्यापार करते हैं और भारत में कालों और विदेशियों के प्रति भारतीयों के रवैये पर बीबीसी हिंदी के फ़ेसबुक पेज के ज़रिए चैट की और अपने विचार रखे -
मैं साल 2009 से भारत में हूँ. कपड़े के व्यापार के सिलसिले में मैं यहां आता था और फिर 2009 में ही यहां एक भारतीय लड़की से विवाह कर लिया.
अब यहां मेरे दो बच्चे हैं 4 और 6 साल के जो यहीं पढ़ते हैं और उनके भविष्य के लिए मैं यहां हूँ.
बीबीसी के साथ फ़ेसबुक चैट करते हुए अहसास हुआ कि लोग वाकई इस मुग़ालते में हैं कि ‘काला’ होना नाइजीरियाई होना है और हर नाइजीरियाई, ‘नाइजीरियन फ़्रॉड’ में शामिल होता है.
मैं एक बात बताना चाहता हूँ. जब मैं भारत आया और मेरे जैसे दूसरे लोग भारत आते हैं तो वो बेहतर अवसरों की तलाश में यहां आते हैं.
लेकिन यहां आने के बाद सच्चाई पता चलती है जब आपको लोग नौकरी नहीं देते. कहीं भी नहीं, सेल्समैन की भी नहीं.
वो आप पर विश्वास नहीं करते. आपको घर नहीं देते और फिर मजबूरन आपराधिक गतिविधियों में कूद जाना पड़ता है, वैसे ही जैसे किसी भारतीय को करना पड़ता है मजबूरन!
मैं आपको एक उदाहरण देता हूँ. मेरे एक दोस्त को सिर्फ़ एक भारतीय पड़ोसी की शिकायत पर पुलिस उठाकर ले गई.
हम घंटों थाने में रहे सिर्फ़ एक शिकायत पर. क्या आपके साथ ऐसा होता? नहीं.
अफ़्रीका में रहने वाले भारतीय वहां सबसे पॉश इलाकों में रहते हैं. उन्हें लोकल लोग सपोर्ट करते हैं, लेकिन भारत में ऐसा नहीं है.
मुझे हर 11 महीने बाद एक दर्दनाक प्रक्रिया से गुज़रना पड़ता है, मकान बदलने की प्रक्रिया.
मैं 2009 से यहां हूँ लेकिन आज भी लोग मुझे मकान देने में हिचकिचाते हैं. मुंबई में तो मुझे किसी ने मकान दिया ही नहीं और इसलिए मजबूरन मुझे नवी मुंबई जाना पड़ा.
लेकिन वहां भी मकान यूं ही नहीं मिला. छह महीने तक बीवी-बच्चों के साथ मकान की तलाश में घूमते-घूमते परेशान होकर मुझे नवी मुंबई के पुलिस कमिश्नर को पत्र लिखना पड़ा. फिर जाकर मकान मिला. सिर्फ़ 11 महीनों के लिए जिसका क़रार भी मई में ख़त्म होने वाला है.
हमसे सामान के ज़्यादा पैसे लेना, ऑटो में लंबे रास्ते से लेकर जाना, अक्सर झगड़ा करना और बात-बात पर पुलिस की धमकी देना आम बात है. यह मुंबई में आए किसी भी विदेशी (गोरे-काले) के साथ होता है.
लेकिन हमारे रंग के साथ एक चीज़ जुड़ी है – संबोधन. ‘कालिया’, ‘नीग्रो’ और 'कालू' के कई अपभ्रंश शब्द हम रोज़ सुनते हैं और अब तो इनसे फ़र्क भी नहीं पड़ता. कुछ तो समझ भी नहीं आते. वो इतने अजीब होते हैं.
हमें ड्रग डीलर या नाइजीरियन फ़्रॉड करने वाला समझा जाता है लेकिन एक बात मैं जानना चाहता हूँ कि क्या फ़्रॉड भारत में नहीं होते?
क्या किसी फ़्रॉड को भारतीय फ़्रॉड कह दिया जाता है?
आपको कैसे मालूम कि आपको फ़ोन करने वाला काला है? अगर है भी तो वो नाइजीरिया से है? आप कैसे सभी कालों को एक ही डंडे से नाप देते हैं.
यही परेशानी हुई थी बैंगलोर की घटना में. भले ही वह लड़की और कार दुर्घटना करने वाले लड़के का आपस में कोई रिश्ता न रहा हो, पर क्योंकि वो काले थे वो गुनहगार थे.
हम भारत सरकार से अपील करते हैं कि वो हमें छवि सुधारने का मौका दे.
‘नाइजीरियन स्टूडेंट्स और कम्यूनिटी’ की तरफ़ से मैं विदेश मंत्रालय और सुषमा स्वराज से अपील करना चाहता हूँ कि वो हमसे मिलकर हमें बात रखने का मौक़ा दें.
सांबो डेविस टेकेना
हम सहयोग करने को तैयार हैं. कौन नहीं चाहेगा कि उसके देश और उसके लोगों के साथ होने वाला भेदभाव ख़त्म हो.
आपके प्रधानमंत्री आज ‘मेक इन इंडिया’ की बात कर रहे हैं. वो विदेशियों को भारत में काम करने और रहने के लिए बुला रहे हैं ताकि यहां की अर्थव्यवस्था सुधरे. लेकिन क्या आप विदेशियों के लिए तैयार हैं?
क्योंकि विदेशी तो काले भी होंगे, मुस्लिम भी होंगे, तब आप उन्हें कैसे स्वीकार करेंगे? आपका 'मेक इन इंडिया' कैंपेन तो विफल हो जाएगा न.
भारतीयों को चाहिए कि वो ख़ुद को विदेशियों के लिए थोड़ा और खोलें. जैसे हर भारतीय चोर नहीं है वैसे ही हर अफ़्रीकी, अमरीकी, ब्रितानी चोर नहीं है.
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