दिल्ली में मैंने दस साल बिताए. उन दस सालों में मैंने कॉलेज पूरा किया, एडवरटाइजिंग में नौकरी की और कई पत्रिकाओं और अख़बारों में काम किया. उस वक़्त मैं बस राजस्थान की एक लड़की थी.
मेरे पिताजी एक्साइज़ ऑफ़िस में थे, मैं बढ़िया इंग्लिश में बात करती थी और अपने ऑफ़िस की बाक़ी लड़कियों की तरह दिखती और चलती थी.
मैं उन बाक़ी लड़कियां में से एक थी, जो दिखने में ऊंची जाति और 'अच्छे घर' से लगती थीं.
दिल्ली में उन दस सालों में मैंने बहुत कुछ देखा, सुना और किया. मैंने हर दूसरी रात मूलचंद पर परांठे खाए, हर महीने के अंतिम रविवार को सरोजिनी नगर की ख़ाक छानी और लगभग हर सप्ताहांत में हौज़ ख़ास गांव जाने के लिए ऑटो वालों से लड़ते हुए बिताया.
मैंने दिल्ली में बस एक चीज़ नहीं की. मैंने किसी को यह नहीं बताया कि मैं दलित हूँ.
मैंने किसी को यह बताना चाहा भी नहीं. क्या फ़ायदा होता? कुछ क़रीबी दोस्तों के अलावा, बाक़ी सब आपस में बातें करते, "तुम्हें पता है याशिका एससी है? यार, लगती तो बिलकुल नहीं है."
कुछ लोग ऑफ़िस में बोलते, "भाई, इन लोगों का क्या है? ये तो सरकार के दामाद हैं... इन्हें बस एग्ज़ाम में बैठना होता है, पास तो अपने आप ही हो जाते हैं, मेहनत तो बस आप-हम जैसे लोगों को करनी पड़ती है, क्यों?"
इस तरह, मैं उनमें में से एक न होकर 'इन लोग' हो जाती. लगभग हर कोई मेरी क़ाबिलियत पर चर्चा कर रहा होता. मेरे चार साल में तीन प्रमोशन, देर तक ऑफ़िस में रह कर काम ख़त्म करना और मेरी कहानियां, जो सोशल मीडिया पर हज़ारों लाइक्स और शेयर्स पाती हैं, शायद किसी को नज़र नहीं आतीं. फ़िर भी जब वो उन्हें नज़रअंदाज़ नहीं कर पाते तो शायद कहते, "अच्छा! कोलंबिया जर्नलिस़्म स्कूल से है और दलित है!"
मैंने सुना था कि जिस नोट में मैंने पहली बार अपने दलित होने की बात की थी, उसके सोशल मीडिया पर शेयर होने के बाद एक पत्रकार ने कुछ ऐसी ही प्रतिक्रिया दी थी.
ऐसा लगता है कि दोनों बातें एक साथ होना नामुमकिन है और दलित घर में पैदा होते ही इंसान की क़ाबिलियत मर जाती है. मानो एक दलित लड़की का दुनिया की सबसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में से एक में पढ़ना कोई अजूबा था.
अगर मैं दिल्ली के उन दस सालों में पूछने वालों को यह नहीं बोलती कि मैं ब्राह्मण हूं, तो लाजपत नगर में किराये का वो मकान जिसमें मैं सात साल रही, उसमें मुझे कोई छह महीने भी नहीं रहने देता.
मैं छह महीने भी तब रह पाती जब दलित लड़की को घर देने के लिए कोई तैयार होता.
वैसे मेरे मकान मालिक ने कभी पूछा भी नहीं, क्योंकि इसकी ज़रुरत ही नहीं पड़ी. मैं दिखने में 'दूसरी जाति' की जो लगती थी. उन्होंने खुद ही अंदाज़ा लगा लिया (शायद मेरे रंग, मेरी अच्छी नौकरी और मेरी दबंगई को देखकर) कि मैं दलित तो हो ही नहीं सकती.
सारे दलित मानो इंसान न होकर जानवरों की एक नई प्रजाति हो गए, सब एक जैसे दिखते हैं या फिर जैसे दूसरी जाति की तरह दिखना, दलित दिखने से बेहतर है.
मगर हमारे समाज के लिए वही बेहतर है. अगर नहीं होता तो मुझे हर वक़्त इस बात का एहसास न होता कि मैं कितनी भाग्यशाली हूं, जो सफाई देकर अपनी जाति छुपा सकती हूं.
मैं हर तरह के दोस्त बना सकती हूं, जिन्हें दलित से भेदभाव नहीं, वो भी, और जो हमें देखने भर के बाद नहाना पसंद करते हैं, वो भी. मुझे मिलने पर हर कोई मुझे मेरे दम पर आंकेगा, मेरी जाति के दम पर नहीं.
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